क्‍यों तनाव में हो? हम “अग्निपथ” नहीं रीलीज कर रहे हैं!

♦ रामकुमार सिंह
सिनेमा बनाने से जुड़े संकल्‍प की एक राजस्‍थानी कहानी मोहल्‍ले में हमने बार-बार सुनायी है। फिर से उसी कहानी का एक और सिरा हाथ लगा है। 17 फरवरी को राजस्‍थान के कई सिनेमाघरों में भोभर रीलीज हो रही है। फिल्‍म के लेखक रामकुमार सिंह ने वितरण से जुड़े अपने रोमांच और ऐसी सच्‍ची कोशिशों को लेकर मीडिया की उदासीनता को इस आलेख में बयान किया है। आप इसे तो पढ़ें ही, इस फिल्‍म के बारे में अपने मित्रों से चर्चा भी करें। और अगर राजस्‍थान में हैं, तो भोभर देखने जरूर जाएं : मॉडरेटर
रात के तीन बज रहे हैं। बिस्‍तर में इधर उधर करवटें बदलने के बावजूद नींद नहीं आ रही है। यह उलझन है या अपनी उलझन का विस्‍तार। यह सृजन की पीड़ा है या एक अभिशाप है, जो न ढ़ंग से जीने देता है, न सोने, न मरने।
दिनभर भागदौड़ थी। एक भोभर, जिसमें हमारे सिनेमा के सपनों के आलू हमने ओट दिये थे, वह दो साल बाद भी सुलग रही है। आलू भुन गया है। मेरे सामने दिन में देखे फिल्‍म के सिक्‍स शीटर रखे हैं। बड़े-बड़े हॉर्डिंग्‍स पर टंगने के लिए छपने के लिए आयी प्रचार सामग्री है। मैं फिल्‍मों के पोस्‍टर देखकर कितना थ्रिल होता था। आज अपने ही रचे पात्रों के चेहरे पोस्‍टर पर हैं।
निर्देशक गजेंद्र श्रोत्रिय मुंबई हैं। दो‍ दिन बाद लौटेंगे। मुझे लगता है, जैसे अकेले का संघर्ष बढ़ा हुआ है। मैंने अपनी चिंता बतायी थी गजेंद्र को कि मुझे भीतर ही भीतर बेहद तनाव है और वे बोले, क्‍यों तनाव में हो? हम भोभर रिलीज कर रहे हैं, अग्निपथ नहीं।
और अब जब सत्रह तारीख नजदीक आ रही है, तो मुझे लगता है यह अजीब संयोग है। मैं सत्रह तारीख को ही पैदा हुआ था। और हां, वह आठ तारीख ही थी अक्‍टूबर की, जब फिल्‍म की शूटिंग शुरू हुई थी। मेरे मोबाइल के अंकों को जोड़कर भी आठ ही अंक बनते हैं। नहीं, मैं अंधविश्‍वासी नहीं हूं लेकिन देखो न, यह आठ नंबर हाथ धोकर पीछे पड़ा है।
सब कुछ इतना आसान भी नहीं होता। दिन में वितरक मित्र मरुधर फिल्‍म्‍स के संजय चतर और अमिताभ के साथ था। वे पिछले एक महीने से हमारे साथ कंधे से कंधा मिलाकर जूझ रहे हैं। एक एक थिएटर वाले से मिलवा रहे हैं। फिल्‍म बनाते समय एक सृजनात्‍मक पीड़ा से गुजर रहे थे और लगता था इससे बड़ी आनंददायी पीड़ा और क्‍या होती होगी, लेकिन अब उसे बेचने के लिए उतना ही जोर आ रहा है। कहीं यह उड़ी हुई नींद इसी वजह से तो नहीं है। नहीं, शायद इसलिए नींद नहीं उड़ी है। मैं भावुक हूं। संजय और अमिताभ के लिए कहता हूं, वे जुनूनी लोग हैं, राजस्‍थानी फिल्‍म के लिए वे जूझ रहे हैं। कितने झंडाबरदार और भी पूरे राज्‍य में घूमते हैं, जो सरकारों और संगठनों से दलाली के अलावा राजस्‍थानी का कोई भला नहीं कर रहे हैं। मुमकिन हुआ तो उनके साथ के भी हमारे सारे अनुभव एक-एक करके बाद में रखूंगा। नहीं, यह नींद इसलिए भी नहीं उड़ी है कि मैं राजस्‍थानी और राजस्‍थानी सिनेमा के उन दलालों से नाराज हूं। मुझे उनसे क्‍या फर्क पड़ता है। वे क्‍या उखाड़ लेंगे मेरा।
संजय के दफ्तर से भोभर के पोस्‍टर और होर्डिंग्‍स और प्रचार सामग्री रवाना हो रही है। उन्‍हीं के दफ्तर के सक्‍सेना जी एक-एक चीज संभाल रहे हैं। ऑफिस के लोग जुटे हुए हैं। मैं कहता हूं, आप संकोच मत कीजिएगा, अपने आफिस एक्‍सपेंसेज बताइएगा और अमिताभ लगभग भावुक होकर कहते हैं, चिंता मत करिए सर, पूरा हिसाब लेंगे। फिलहाल यह जरूरी है, जो आप लोगों ने दिल से काम किया है, उसी जुनून और दीवानगी के साथ उसे लोगों तक पहुंचा पाएं। आगे का काम जनता के हवाले।
तो नींद क्‍यों नहीं आ रही है? क्‍या जनता से डर लग रहा है? कि वो फिल्‍म के बारे में क्‍या कहेगी?
नहीं, यह डर जनता से भी नहीं है। उस जनता से क्‍या डरना, जो शाहरुख खान, अक्षय कुमार को नहीं बख्‍शती। देखना एक दिन सलमान खान को भी निपटा देगी। मुझे अनुराग कश्‍यप याद आते हैं, जो दम ठोंक कर कहते हैं, जिनके गूदे में दम है, वो सिनेमा बनाएंगे और ऐसे ही बनाएंगे।
अब तक पचास से अधिक मित्रों को यह स्‍पष्‍टीकरण दे चुका हूं कि हमने फिल्‍म में आइटम सॉन्‍ग क्‍यों नहीं रखा?
हा हा हा… मैंने लिखा था कसम से। गजेंद्र को दिखाया था। उस पर जोर डाला था कि और नहीं तो रोलिंग क्रेडिट के साथ चला देते हैं, मजा आएगा।
गजेंद्र गाने से अभिभूत थे लेकिन डांट दिया मुझे। बोले, दिमाग खराब हो गया है तुम्‍हारा। अच्‍छी-खासी फिल्‍म की क्‍यों बैंड बजाना चाहते हो?
दिन में कल सीए मित्र रघुवीर पूनिया के साथ बैठा था। उनके पास दूसरे मित्र राजवीर बैठे थे। रघुवीर ने राजवीर से कहा, 17 को दल बल सहित चलेंगे। अपनी फिल्‍म है। राजवीर कल ही अग्निपथ देखकर आये थे, बोले, अग्निपथ जैसी तो नहीं बनायी है न, मेरा दिमाग खराब हो गया देखकर। मुझे समझ में आया कि क्‍यों गजेंद्र कह रहे थे कि तनाव मत लो, हम अग्निपथ नहीं, भोभर रिलीज कर रहे हैं। और रघुबीर ने राजबीर के आश्‍वस्‍त किया कि भोभर एक जोरदार फिल्‍म है। मैं देख चुका हूं, फिर भी देखने जाऊंगा।
तो नींद क्‍यों नहीं आ रही है? क्‍या अपनी बिरादरी के उन संपादकीय सा‍थियों के रवैये के कारण परेशान हूं, जो दिनभर अंग्रेजी अखबारों से कूड़ा-करकट बीनकर सुबह-सुबह सिनेमाई गॉसिप के वमन से पूरे के पूरे हिंदी अखबार को रंग देते हैं और हमारी फिल्‍म की खबर के लिए उन्‍हें हर बार खुद बताना पड़ता है। क्‍या वे लोग फेसबुक नहीं देखते जिस पर चिल्‍ला कर हम सब, हमारे सब मित्र कह रहे हैं कि सत्रह को रिलीज है। उन्‍होंने अब तक नहीं पूछा कि कैसा चल रहा है? वे चलाकर कभी मौलिक खबर क्‍यों नहीं पूछते?
मुझे याद है, जब भोभर की स्‍क्रीनिंग कॉरिंथ में हो रही थी, तो एक अंग्रेजी के पत्रकार ने हमारी बिना जान-पहचान के यूनान में आयोजकों से बात की, यूनान में रह रहे राजस्‍थानियों से बात की और एक जोरदार खबर ऐसे तान दी कि अगले दिन दूसरे लोगों ने बताया कि किसी अभिषेक तिवारी ने आपकी फिल्‍म पर जोरदार लिखा है।
अजय ब्रह़मात्‍मज जी, आप कहां है? कुछ कहिए न हिंदी वालों से प्‍लीज। हमारी भी सुनें। हमने भी सपना देखा है। हमारा सपना उस करण जौहर से भी बड़ा है। हमारी फिल्‍म के शुरू में भी हमने स्‍व गौरी शंकर श्रोत्रिय (गजेंद्र के मरहूम पिता) को श्रद्धां‍जलि और हरदेवा राम कड़वासरा (मेरे महान पिता) का आभार व्‍यक्‍त किया है। उन्‍होंने हमारे लिए यश जौहर से भी बड़ा संघर्ष किया था। सारे अखबार रंग रखे हैं आप लोगों ने उस करण जौहर की तारीफ में, जो दंभ से कहता है कि मैंने जनता से अपने पिता का बदला ले लिया है। हमारी भी सुनो…
…मत सुनो, लेकिन हम ऐसे ही चिल्‍लाएंगे। चिल्‍ला चिल्‍लाकर कहेंगे, हमें सिनेमा से प्‍यार है, हम सिनेमा के‍ लिए जीते-मरते हैं। हम कांचा चीना नहीं हैं। हम ड्रग डीलर नहीं हैं। हम शराब कारोबारी नहीं हैं। एक दो नंबर के काम नहीं करते। हमने मेहनत से कमाये, पसीने से कमाये पैसे से फिल्‍म बनायी है। जब पैसा लगाने का वादा करके भी हमारे मित्रों ने फोन उठाने बंद कर दिये थे, तब गजेंद्र ने कहा था, हम अपना पैसा लगाएंगे। हम फिल्‍म बनाएंगे। हम और पैसा कमाएंगे, फिर और फिल्‍म बनाएंगे। और कितनी बार गजेंद्र कहता है, यदि आदमी को फिल्‍म नहीं बनानी तो यह करोड़ों कमाने के लिए क्‍यों पागल रहता है? क्‍योंकि दुनिया के बाकी सारे शौक तो कम पैसे में भी पूरे किये जा सकते हैं। लेकिन हम विज्ञापनों पर पैसे नहीं लुटा सकते? तो विज्ञापन नहीं देंगे, तो क्‍या आप हमारी खबर भी नहीं छापेंगे?
मत छापो। मत छापो। मत छापो। अगली बार हम विज्ञापन देने के पैसे भी कमाएंगे। फिल्‍म बनाएंगे। खबर छपवाएंगे। हा हा हा। हम रावण हैं। हमारी नाभि में अमृत कुंड है। हमें कोई मार नहीं सकता। क्‍योंकि आप राम नहीं हैं] आपके पास हमें मारने का फार्मूला नहीं है। आप भी हमारी तरह हाड़-मांस और गलतियों के पुतले हैं। जाहिर है, नींद न आने का कारण यह भी नहीं है। एक दिन हम आपके क्‍लाइंट होंगे तो आप हमारी भी सुनेंगे।
तो मुझे नींद क्‍यों नहीं आ रही है। क्‍योंकि कल बॉलीवॉल खेलते समय मेरी अंगुली में चोट लगी थी। वह इधर-उधर छूती है तो दर्द हो रहा है। नींद बार-बार टूट रही है और मैं जागता हूं और घड़ी देखता हूं। य‍ह लिखते हुए मुझे घंटाभर हो गया है। चार से ऊपर बज गये हैं। मैं अब छत पर टहलूंगा। दो दिन पहले की बूंदाबांदी ने ठंड बढ़ा दी है। फिर भी मैं छत पर रहूंगा। मैं अरावली की ओट से उगते हुए लाल सूरज को देखूंगा। मैं कल्‍पना करूंगा कि मैं हनुमान हो जाऊं। उस सूरज को अपने मुंह में भर लूंगा। तब सब लोग, आप लोग, सारे देवता आकर कहें कि भाई, बहुत हुआ, अब सूरज छोड़ दो। और तब मैं आपसे सौदा करूंगा। एक फिरौती लूंगा कि आप हमारी फिल्‍म देखें। हमने दिल से बनायी है। आप उन सब लोगों की फिल्‍में भी देखें जो दिल से सिनेमा बनाते हैं। आप पैसों से फिल्‍में बनाने वालों की फिल्‍में देखते हैं, वे और अमीर हो जाते हैं। और अराजक हो जाते हैं। आप दिल से फिल्‍में बनाने वालों की फिल्‍में नहीं देखते, उनके दिल टूट जाते हैं।
नहीं, उनको गरीब कर देना आपके बूते में नहीं। हमने आसमान को पाने का ख्‍वाब देखा है। देखना सूरज तो निगल ही जाएंगे। फिरते रहना मारे मारे। कहते फिरना कि उसका कहा मानते, अच्‍छा सिनेमा देखते, तो आज धरती पर इतना अंधेरा नहीं होता। अंधेरा बहुत है और मैं छत पर टहलते हुए भोभर के उसी गाने से गुहार कर रहा हूं, जिसके लिए मरहूम संगीतकार आदरणीय दान‍ सिंह ने अपनी धुन बख्‍शते हुए कहा था, बेटा, तुम लोगों को कोई नहीं रोक सकता, क्‍योंकि तुमने उस सूरज से गुहार की है जिसकी रोशनी से पूरी कायनात है – उग म्‍हारा सूरज उग रे…

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